हंसा मेहता भारत की संविधान सभा सदस्या थीं, महिलाओं की ओर से राष्ट्र-ध्वज भेंट करने का गौरव प्राप्त हुआ था।
हंसा मेहता भारत की संविधान सभा सदस्या थीं जिन्होंने 14 अगस्त 1947
की अर्द्धरात्रि को सत्ता के हस्तांतरण के ऐतिहासिक अवसर पर भारतीय महिलाओं की ओर
से राष्ट्र-ध्वज भेंट करने का गौरव प्राप्त किया था।
कांग्रेस से:
हंसा मेहता का बचपन से उच्च शिक्षा पत्रकारिता
तक।
3 जुलाई 1897 को हंसा मेहता का जन्म बड़ौदा राज्य में दर्शनशास्त्र
के प्राध्यापक, जो बाद में बड़ौदा राज्य के दीवान भी रहे, सर मनुभाई मेहता के घर हुआ। घर में पढ़ाई-लिखाई का महौल उपलब्ध होने के
कारण हंसाबेन को शिक्षा के लिए अधिक मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा। बड़ौदा के
विद्यालय और महाविद्यालय से दर्शनशास्त्र में बी.ए और एम.ए की पढ़ाई की।
और फिर पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए इंग्लैड गईं। उसके बाद उन्होंने
पत्रकारिता की पढ़ाई खत्म कर, अमेरिका
और कई देशों की यात्रा की जहाँ महिलाएं मताधिकार के लिए संघर्षरत थी। अपने अनुभवों
को उन्होंने बॉम्बे क्रॉनिकल में प्रकाशित किया।
पहुँचीं और वहाँ उनकी मुलाक़ात सरोजिनी नायडू से हुई। सरोजिनी के साथ
हंसाबेन ने महिला आंदोलन और सार्वजनिक सभाओं में शिरक़त करना शुरू किया।
हंसा मेहता ने अन्तर्जातीय विवाह कीं।
अन्तर्जातीय विवाह आज भी हमारे समाज में एक हद तक ही स्वीकार्य हो
पाया है और उस दौर में तो यह बेहद क्रांतिकारी था। प्रथाओं को तोड़ते हुए 3 जनवरी
1924 को हंसाबेन ने डॉ जीवराज एन. मेहता के साथ विवाह किया। जो उस वक्त बड़ौदा
राज्य के प्रधान चिकित्सा अधिकारी थे।
उनके विवाह के प्रतिरोध में गुजरात से वाराणसी तक सभाएं हुई और दोनों
को जाति-बहिष्कृत कर दिया गया। लेकिन इन सबसे बेपरवाह मेहता-दंपत्ति विवाह के
पश्चात बंबई आ गए।
हंसा मेहता की कांग्रेस से जुड़ाव और राजनीति
में भागीदारी।
1930 में हंसा मेहता गांधीजी के साथ जुड़कर स्वतंत्रता आंदोलन से
जुड़ी, तो उनके व्यक्तित्व का बहुआयामी पक्ष उभरकर
सामने आया। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण 1932 और 1940 में उनको
जेल भी जाना पड़ा।
राजकुमारी अमृतकौर, लक्ष्मी मेनन और
सरोजनी नायडू के साथ मिलकर हंसा मेहता ने महिलाओं के अधिकारों के विषय पर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का घोषणापत्र तैयार
करने की ज़ोरदार वकालत की।
हंसाबेन संविधान सभा की सदस्या चुनी गईं और संविधान में महिलाओं के
अधिकारों को लेकर अनेक महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप किए। ‘हिन्दू कोड बिल’ की वह एक
महत्त्वपूर्ण समर्थक थीं जो इसे और अधिक प्रगतिशील बनाना चाहती थीं।
उन्होंने महिलाओं के स्तर में सुधार के अपने उद्देश्य को
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी रखने की कोशिश की। संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘महिलाओं
के स्तर’ से संबंधित आयोग में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया और ‘मानव
अधिकारों का सार्वभौम घोषणापत्र’ का प्रारूप तैयार करने वाले संयुक्त राष्ट्र
मानवाधिकार आयोग में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
शिक्षा के क्षेत्र में उनकी हमेशा से विशेष रुचि रही। नौ साल तक
महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ौदा के
उप-कुलपति के तौर पर उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को वह स्वरूप देने का काम किया, जो उन्होंने विश्वभर भ्रमण के दौरान अर्जित
किया था। शिक्षा को सामाजिक कार्य से जोड़ने के पीछे उनका दार्शनिक और व्यावहारिक
दृष्टिकोण था।
कठिन परिस्थितियों में संघर्षपूर्ण लंबा जीवन जीते हुए 4 अप्रैल 1995
को वह अपने पीछे एक बड़े संघर्ष की पंरपरा छोड़कर चली गईं। महिलाओं के स्तर में
सुधार के लिए उनके प्रयासों को संयुक्त राष्ट्र संघ ने सराहा और एक कालजयी विदुषी
महिला के रूप उनके योगदानों को याद किया।